Ranchi : सरहुल हिंदी पंचांग के चैत्र महीने शुक्ल पक्ष के तीसरे दिन मनाया जाता है। यह उत्सव भारत में आदिवासियों की समृद्धि संस्कृति विरासत व ऐतिहासिक परंपराओं का प्रतिबिंब है। हो और मुंडा जनजातियों में सरहुल को बा पर्व के रूप में मनाया जाता है, बा जिसका अर्थ होता है फूल और पर्व यानी कि त्योहार। संथाली में सरहुल को बाहा पर्व के नाम से जानते हैं, बाहा जिसका अर्थ होता है फुल यानी फूलों का त्यौहार। खड़िया जनजाति में सरहुल को जंकोर के नाम से जाना जाता है, जिसका अर्थ होता है, सृजन या अंकुरण । उरांव जनजाति में सरहुल पर्व को खद्धी के नाम से जानते हैं। खद्धी यानी खुद अर्थात शिशु। शिशु को नव अंकुर भी कहा जा सकता है। पवित्र परंपरा परिणय सूत्र में बांधने के बाद नव दंपति से वंश परंपरा को आगे बढ़ाने की प्रक्रिया आरंभ होती है। वास्तव में सरहुल का पर्व सृष्टि की रचना का प्रतीकात्मक रूप है। यही वह समय है जब जंगल में साल के फूल खिलते हैं। पलाश के लाल चटक रंग से जंगल दहक उठना है, महुआ के फूलों की मादकता से पूरा जंगल महकने लगता है। गेहूं ,सरसों और रबि के फसल पक कर खलिहानों तक पहुंचने लगते हैं। अच्छी फसल की आमद से किसान और खेतिहर का मन खुशी का उत्साह हो उठता है । चारों ओर खुशियां ही खुशियां होती है। पृथ्वी के रचयिता सूर्य और पृथ्वी पहाड़ वायु अग्नि, जल ,जंगल व ईश्वर के प्रति के प्रति आदर के भाव होते हैं।
उरांव जनजाति की मान्यताओं के अनुसार सरहुल के दिन ही प्रतीकात्मक तौर पर सूर्य व धरती का विवाह कराया जाता है। पाहन को सूर्य के प्रतीक के रूप में देखा जाता है।व इसी परंपरा के निर्वहन के लिए सूर्य के प्रतीक पाहन व पृथ्वी की शादी कराई जाती है। इस दिन पाहन को दूल्हे की तरह कंधे पर बिठाकर स्नान कराया जाता है और कुंवारी कन्या पृथ्वी के साथ शादी की नेग व रस्मों को पूरा कराया जाता है। शादी के बाद ही कुंवारी कन्या एक विवाहित स्त्री के रूप में परिणत होती है और सृष्टि को चलाने के लिए वंश परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए शिशु को जन्म देती है। मान्यताओं के अनुसार सरहुल पर्व के पूर्व तक प्रकृति प्रदत्त नए अन्न, फलों और फूलों का सेवन वर्जित है। सरहुल के दिन प्रकृति को धन्यवाद अर्पित करने के बाद ही उनका सेवन आरंभ किया जाता है। पाहन के द्वारा घड़ा में पानी रखकर अगले वर्ष वर्षा की और खेती-बाड़ी की भी भविष्यवाणी की जाती है तथा समस्त सृष्टि की कल्याण की कामना की जाती है
उराँव जनजातियों में चैत्र और पुष माह में विवाह भी वर्जित है। यह त्यौहार अपने देवी, देवताओं ,ईस्ट, विशिष्ट और शक्तियों, तथा पुरखों को ,को नमन करने का दिन है।
ऐसे तो सरहुल के विषय पर कई दंत कथाएं हैं जिसमें एक यही दंतकथा है। सरहुल के दिन होता है सूर्य और धरती का विवाह,डॉक्टर कार्तिक उरांव ने सन 1967 ई में जनजातीयों/ आदिवासियों को एकजुट करने हेतु केंद्रीय सरना स्थल सिरम टोली में जुलूस/ शोभा यात्रा प्रारंभ कर एक मंच पर लाने का प्रयास किए हैं जो अभी भी चल रही है।
आलेख –
सोमा उराँव, मीडिया प्रभारी जनजाति सुरक्षा मंच झारखंड,सह अध्यक्ष झारखंड प्रदेश मुखिया संघ