”मैं और मेरा बचपन” नाटक में दिखा बच्चों से बचपन छीन रहा है मोबाइल

बेगूसराय। संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार के सहयोग से बाल रंगमंच आर्ट एंड कल्चरल सोसाइटी की प्रस्तुति परक नाट्य कार्यशाला के समापन के अवसर पर बीते रात प्रस्तुत नाटक ”मैं और मेरा बचपन” ने बता दिया कि मोबाइल के मकड़जाल में लोग किस तरह उलझ गए हैं।

सिकंदर कुमार के परिकल्पना एवं ऋषिकेश कुमार के निर्देशन में बाल कलाकारों ने नाटक में शुरू से अंतिम तक ऐसे दृश्य प्रस्तुत किए कि मध्य विद्यालय बीहट के परिसर में नाटक देखने पहुंचे दर्शकों ने कितनी बार तालियां बजाई उन्हें खुद भी पता नहीं चला। बच्चों ने गांव के पारंपरिक खेल से नाटक की शुरुआत कर बीच-बीच में मोबाइल के बढ़ते मकड़जाल को बखूबी प्रस्तुत कर लोगों को सोचने के लिए मजबूर कर दिया कि आखिर हमारी अगली पीढ़ी विनाश के दलदल में किस तरह फंस गई है।

कलाकारों ने दिखाया कि मैं और मेरा बचपन, इस मैं में मेरा बचपन तो शामिल है ही आपका बचपन भी शामिल है, इस मैं में आपके घर में जो नन्हे मुन्ने बच्चे हैं उनका बचपन भी शामिल है। इस मैं में दादा-दादी, नाना-नानी, चाचा-चाची सभी का बचपन शामिल है। इसमें मैं आज का बचपन शामिल है तो आने वाले कल का बचपन भी शामिल होगा ही। बचपन, जवानी और बुढ़ापा यूं तो जीवन के कई रूप रंग हैं। कई अवस्थाएं, लेकिन बचपन की बात ही निराली है, ना खाने की चिंता, ना सोने की चिंता, ना नहाने की चिंता और ना कमाने की चिंता, मतलब चिंता रहित जीवन।

बचपन इसलिए भी खास होता है क्योंकि यह नींद की गोली से नहीं, लेमन चूस की गोली से होकर गुजरती है। उम्र भले ही छोटी हो, लेकिन शरारत की दुनिया बहुत बड़ी होती है। बचपन मतलब स्वर्ग का जीवन, जहां से निकलने का मन ही ना हो। यह वही समय होता है जो हमारे आने वाले भविष्य को एक नया आकार देता है। लेकिन कभी-कभी कुछ परिस्थितियों के कारण आकार गलत रूप ले लेता है, इसके कई कारण हो सकते हैं जैसे इनका आकार।

बच्चा एक कोरे स्लेट की तरह होता है, जिस पर कुछ भी लिखा जा सकता। बच्चे अनुकरण करना ज्यादा पसंद करते हैं वह जो देखते हैं, जो सुनते हैं, वही अनुकरण करते हैं। बचपन से लेकर किशोरावस्था तक कुछ गलतियां होती हैं। जिसे हमारे घर वाले, हमारे रिश्तेदार और यह समाज आखरी लकीर समझ लेता है। लेकिन 25 साल पहले का बचपन तो ऐसा नहीं था। पहले का बचपन कुछ और था और आज का बचपन कुछ और। पहले का बचपन खुला-खुला सा था जो आसमान को आसमान में देखना था। लेकिन जब से कर लो दुनिया मुट्ठी में आई है, जैसे बचपन ही सिमट कर मुट्ठी में आ गया और सिर्फ बच्चों का बचपन ही नहीं हम बड़ों की जिंदगी भी सिमट कर मुट्ठी में आ गई है।

आज मोबाइल हमारे जीवन का एक एहम हिस्सा बन चुका है। हर किसी के पास इसका होना एक आम बात है। इसने हमारे जीवन में क्रांतिकारी बदलाव लाया है। लेकिन इसके दूसरे पहलू को भी समझना बहुत जरूरी है। यह हमारे जीवन में एक मीठे जहर की तरह काम कर रहा है, खास कर इन छोटे-छोटे बच्चों पर तो इनका और भी ज्यादा प्रभाव है। यह हमारे देशज परंपरा को खत्म करते जा रहा है और हमें वास्तविक दुनिया से निकल कर आभाषी दुनिया में धकेल रहा है।

मां-पूर्णिमा कुमारी, पिता-आकाश कुमार, बेटा-राजेश कुमार, बेटी-आरुषि भारती, सूत्रधार-कुणाल कुमार, फेसबुक-ऋषि कुमार, इंस्टाग्राम-शिवराज, फ्री फायर-धर्मवीर कुमार, ऋषि कुमार, दादाजी-वीरेन्द्र कुमार, शिक्षक-रोहित कुमार तथा अन्य कलाकारों में महिमा, मुस्कान, कंचन, राधा, अंकित, प्रतीक, आर्यन राज, राजीव, प्रिंस, छोटू, पवन, राजीव, ऋषभ, सौरभ, शिवम, आयुष, आयुष झा एवं दुर्गेश नंदिनी ने शानदार अभिनय किया। प्रकाश कल्पना किया रवि वर्मा तथा मंच संचालन डॉ. कुंदन कुमार ने किया।

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