Ranchi : आज का दिन आदिवासी अस्मिता, स्वाभिमान और संघर्ष की वह मशाल है, जो 1855 में सिद्धू-कान्हू मुर्मू के नेतृत्व में संथाल परगना की धरती से जली थी। हुल दिवस कोई महज ऐतिहासिक तारीख नहीं, बल्कि वह चेतना है जो आज भी आदिवासी समाज के हृदय में जोश और सवाल पैदा करती है — क्या सिद्धू-कान्हू के सपनों का भारत बन पाया है?
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सिद्धू और कान्हू मुर्मू ने अंग्रेजों के अन्याय और ज़मींदारों के अत्याचार के खिलाफ जो बिगुल फूंका था, वह केवल विद्रोह नहीं था, बल्कि जल, जंगल और ज़मीन पर अधिकार की जनगर्जना थी। इस हुल क्रांति में लाखों आदिवासी स्त्री-पुरुषों ने जान की आहुति दी थी। लेकिन आज, जब हम इस दिन को स्मरण करते हैं, तो साथ में यह भी विचार करना जरूरी है कि क्या आदिवासी समाज को वह अधिकार और सम्मान मिला, जिसके लिए ये बलिदान हुए?
अबुआ अधिकार मंच के संयोजक अभिषेक शुक्ला का कहना है कि “हुल दिवस कोई सांस्कृतिक रस्म नहीं, यह आदिवासी समाज की आत्मा है। इसे केवल श्रद्धांजलि या जुलूस तक सीमित नहीं किया जा सकता।” उन्होंने कहा कि आज भी जब हम देश की विकास नीतियों, वन अधिनियमों या जल-जंगल पर बढ़ते कब्जों को देखते हैं, तो यह सवाल उठता है कि क्या हम वास्तव में सिद्धू-कान्हू के उस भारत की ओर बढ़े हैं, जिसमें हर नागरिक को बराबरी और स्वशासन का अधिकार मिले?
हुल दिवस हमें न केवल इतिहास से जोड़ता है, बल्कि यह आदिवासी अधिकारों की मौजूदा लड़ाई को दिशा भी देता है। यह दिन युवाओं को प्रेरित करता है कि वे अपनी संस्कृति, भाषा और परंपराओं को जानें, सहेजें और उस विरासत पर गर्व करें, जिसके लिए उनके पूर्वजों ने संघर्ष किया।
आज, जब देश सामाजिक न्याय, जलवायु संरक्षण और भूमि अधिकार जैसे मुद्दों से जूझ रहा है, हुल दिवस हमें सामूहिक संघर्ष और आत्मसम्मान की प्रेरणा देता है। यह दिन एक चेतावनी भी है – अगर स्वाभिमान की अनदेखी हुई, तो हुल फिर होगा।